मैं घर से जाऊँ तो ताला लगा के जाती हूँ
कुछ उस की शोहरतें कुछ ए'तिबार उस का है
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किसी कशिश के किसी सिलसिले का होना था
कैसे हों ख़्वाब आँख में कैसा ख़याल दिल में हो
ये कमरा और ये गर्द-ओ-ग़ुबार उस का है
जो चला गया सो चला गया जो है पास उस का ख़याल रख
जाती थी कोई राह अकेली किसी जानिब
आते रहते हैं फ़लक से भी इशारे कुछ न कुछ
वक़्त बस रेंगता है उम्र के साथ
किस की आँखों को नींद चुभती है
ख़ुद अपना साथ भी चुभने लगा था