ज़रा धीमी हो तो ख़ुशबू भी भली लगती है
आँख को रंग भी सारे नहीं अच्छे लगते
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मुसलसल एक ही तस्वीर चश्म-ए-तर में रही
मिरी हर बात पस-मंज़र से क्यूँ मंसूब होती है
जिस सम्त की हवा है उसी सम्त चल पड़ें
हमें ख़बर थी बचाने का उस में यारा नहीं
किसी के नर्म लहजे का क़रीना
कोई पूछे मिरे महताब से मेरे सितारों से
समुंदर हो तो उस में डूब जाना भी रवा है
अता-ए-अब्र से इंकार करना चाहिए था
जो डुबोएगी न पहुँचाएगी साहिल पे हमें
दरिया की रवानी वही दहशत भी वही है
अगर इतनी मुक़द्दम थी ज़रूरत रौशनी की
ख़ुशी के दौर तो मेहमाँ थे आते जाते रहे