क्या रूप बरस रहा है
हर आइना हँस रहा है
था हासिल-ए-इश्क़ अपना
जो रिज़्क़-ए-हवस रहा है
सुनते हैं वो आशियाँ था
अपना जो क़फ़स रहा है
वीरान हैं सब मुँडेरें
जी कैसा तरस रहा है
कुछ भी नहीं घर में 'यूसुफ़'
इक हौसला बस रहा है
Rahat Indori
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ख़्वाब आईना कर रही है दिल में
इसी खंडर में मिरे ख़्वाब की गली भी थी
पहले मैं तेरी नज़र में आया
इसी पे शहर की सारी हवाएँ बरहम थीं
आँख में ठहरा हुआ सपना बिखर भी जाएगा
उसी हरीफ़ की ग़ारत-गरी का डर भी था
हर नज़र में है असासा अपना
कितने पेच-ओ-ताब में ज़ंजीर होना है मुझे