एक भी आफ़्ताब बन न सका
लाख टूटे हुए सितारों से
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Gulzar
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Mir Taqi Mir
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जिस का बदन है ख़ुश्बू जैसा जिस की चाल सबा सी है
पानी को आग कह के मुकर जाना चाहिए
तामीर-ए-ज़िंदगी को नुमायाँ किया गया
मैं लिपटता रहा हूँ ख़ारों से
हम गरचे दिल ओ जान से बेज़ार हुए हैं
बे-तलब एक क़दम घर से न बाहर जाऊँ
साँस लेने को ही जीना नहीं कहते हैं 'ज़फ़र'
यारो हर ग़म ग़म-ए-याराँ है क़रीब आ जाओ
ख़बर
क्या ढूँडने आए हो नज़र में
आ मिरे चाँद रात सूनी है