उन की महफ़िल में 'ज़फ़र' लोग मुझे चाहते हैं
वो जो कल कहते थे दीवाना भी सौदाई भी
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यारो हर ग़म ग़म-ए-याराँ है क़रीब आ जाओ
हाए ये तवील ओ सर्द रातें
पानी को आग कह के मुकर जाना चाहिए
वो मेरी जान है दिल से कभी जुदा न हुआ
ख़बर
साँस लेने को ही जीना नहीं कहते हैं 'ज़फ़र'
जिस का बदन है ख़ुश्बू जैसा जिस की चाल सबा सी है
पुकारता हूँ कि तुम हासिल-ए-तमन्ना हो
बे-तलब एक क़दम घर से न बाहर जाऊँ
सवाली
आ मिरे चाँद रात सूनी है
जो हुरूफ़ लिख गया था मिरी आरज़ू का बचपन