मेरी इक छोटी सी कोशिश तुझ को पाने के लिए
बन गई है मसअला सारे ज़माने के लिए
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मैं 'ज़फ़र' ता-ज़िंदगी बिकता रहा परदेस में
तंहाई को घर से रुख़्सत कर तो दो
कौन याद आया ये महकारें कहाँ से आ गईं
पुकारे जा रहे हो अजनबी से चाहते क्या हो
चेहरा लाला-रंग हुआ है मौसम-ए-रंज-ओ-मलाल के बाद
जो अपनी है वो ख़ाक-ए-दिल-नशीं ही काम आएगी
इरादा हो अटल तो मोजज़ा ऐसा भी होता है
ख़त लिख के कभी और कभी ख़त को जला कर
पल पल जीने की ख़्वाहिश में कर्ब-ए-शाम-ओ-सहर माँगा
अभी ज़िंदा हैं हम पर ख़त्म कर ले इम्तिहाँ सारे
देखें क़रीब से भी तो अच्छा दिखाई दे