शजर के क़त्ल में इस का भी हाथ है शायद
बता रहा है ये बाद-ए-सबा का चुप रहना
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जो आए वो हिसाब-ए-आब-ओ-दाना करने वाले थे
कितनी आसानी से मशहूर किया है ख़ुद को
छत टपकती थी अगरचे फिर भी आ जाती थी नींद
जो अपनी है वो ख़ाक-ए-दिल-नशीं ही काम आएगी
बदन कजला गया तो दिल की ताबानी से निकलूँगा
मेरी इक छोटी सी कोशिश तुझ को पाने के लिए
मैं 'ज़फ़र' ता-ज़िंदगी बिकता रहा परदेस में
जब इतनी जाँ से मोहब्बत बढ़ा के रक्खी थी
नहीं मालूम आख़िर किस ने किस को थाम रक्खा है
ज़मीं फिर दर्द का ये साएबाँ कोई नहीं देगा
पल पल जीने की ख़्वाहिश में कर्ब-ए-शाम-ओ-सहर माँगा
तो फिर मैं क्या अगर अन्फ़ास के सब तार गुम उस में