हज़ार बंदिश-ए-औक़ात से निकलता है

हज़ार बंदिश-ए-औक़ात से निकलता है

ये दिन नहीं जो मिरी रात से निकलता है

वो रौशनी में भी होता नहीं कहीं मौजूद

जो रंग माह-ए-मुलाक़ात से निकलता है

मुझे बहुत है जो ख़ुशबू का एक झोंका सा

कभी कभी तिरे बाग़ात से निकलता है

इसी नवाह में आबाद हूँ कहीं मैं भी

धुआँ जो मेरे मज़ाफ़ात से निकलता है

दिल और तरहा के हालात से उलझता हुआ

कुछ और तरहा के हालात से निकलता है

सुबूत सारा हमारे ख़िलाफ़ भी अब तो

हमारे अपने बयानात से निकलता है

जो चारों सम्त गिरानी की है फ़रावानी

तो क़हत भी इसी बुहतात से निकलता है

वो लहन जिस का सरोकार ही नहीं मुझ से

कभी तो वो भी मिरी ज़ात से निकलता है

'ज़फ़र' ये बाइस-ए-तशवीश भी है सब के लिए

जो मतलब और मिरी बात से निकलता है

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