आगे बढ़ूँ तो ज़र्द घटा मेरे रू-ब-रू
पीछे मुड़ूँ तो गर्द-ए-सफ़र मेरे सामने
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वो क़हर था कि रात का पत्थर पिघल पड़ा
न जाने क्यूँ मिरी निय्यत बदल गई यक-दम
आख़िर 'ज़फ़र' हुआ हूँ मंज़र से ख़ुद ही ग़ाएब
सिमटने की हवस क्या थी बिखरना किस लिए है
सोचता हूँ कि अपनी रज़ा के लिए छोड़ दूँ
जहाँ निगार-ए-सहर पैरहन उतारती है
मुझ से छुड़वाए मिरे सारे उसूल उस ने 'ज़फ़र'
मौसम का हाथ है न हवा है ख़लाओं में
न उस को भूल पाए हैं न हम ने याद रक्खा है
मैं किसी और ज़माने के लिए हूँ शायद
जहाँ से कुछ न मिले हुस्न-ए-माज़रत के सिवा
फिर जा रुकेगी बुझते ख़राबों के देस में