अपनी ये शान-ए-बग़ावत कोई देखे आ कर
मुँह से इंकार भी है और सर भी झुकाए हुए हैं
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जिसे अब तक तलाश करता हूँ
हज़ार बंदिश-ए-औक़ात से निकलता है
तिरे रास्तों से जभी गुज़र नहीं कर रहा
बस एक बार किसी ने गले लगाया था
मैं ने कब दावा किया था सर-ब-सर बाक़ी हूँ मैं
शब भर रवाँ रही गुल-ए-महताब की महक
इश्क़ उदासी के पैग़ाम तो लाता रहता है दिन रात
देखो तो कुछ ज़ियाँ नहीं खोने के बावजूद
ख़ामुशी अच्छी नहीं इंकार होना चाहिए
एक ही बार नहीं है वो दोबारा कम है
बाज़ार-ए-बोसा तेज़ से है तेज़-तर 'ज़फ़र'
अपने सोए हुए सूरज की ख़बर ले जा कर