जो यहाँ ख़ुद ही लगा रक्खी है चारों जानिब
एक दिन हम ने इसी आग में जल जाना है
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Gulzar
Habib Jalib
Mir Taqi Mir
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मुश्किल-पसंद ही सही मैं वस्ल में मगर
हवा के साथ जो इक बोसा भेजता हूँ कभी
पलट पड़ा जो मैं सर फोड़ कर मोहब्बत में
कोई इस बात को तस्लीम करे या न करे
ये बात अलग है मिरा क़ातिल भी वही था
ये ज़िंदगी की आख़िरी शब ही न हो कहीं
बात मुझ में भी कुछ इस तरह की होगी जो यहाँ
सफ़र कठिन ही सही जान से गुज़रना क्या
कुछ दिनों से जो तबीअत मिरी यकसू कम है
है और बात बहुत मेरी बात से आगे
खड़ी है शाम कि ख़्वाब-ए-सफ़र रुका हुआ है
न उस को भूल पाए हैं न हम ने याद रक्खा है