लगी थी जान की बाज़ी बिसात उलट डाली
ये खेल भी हमें यारों ने हारने न दिया
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वो सूरत देख ली हम ने तो फिर कुछ भी न देखा
वो एक तरहा से इक़रार करने आया था
मैं ज़र्द आग न पानी के सर्द डर में रहा
रू-ब-रू कर के कभी अपने महकते सुर्ख़ होंट
कहाँ तक हो सका कार-ए-मोहब्बत क्या बताएँ
झूट बोला है तो क़ाएम भी रहो उस पर 'ज़फ़र'
मुझे ख़राब किया उस ने हाँ किया होगा
कब वो ज़ाहिर होगा और हैरान कर देगा मुझे
उस को भी याद करने की फ़ुर्सत न थी मुझे
इक दूर के सफ़र पे रवाना भी हूँ 'ज़फ़र'
रहता नहीं हूँ बोझ किसी पर ज़ियादा देर
वहाँ मक़ाम तो रोने का था मगर ऐ दोस्त