मौत के साथ हुई है मिरी शादी सो 'ज़फ़र'
उम्र के आख़िरी लम्हात में दूल्हा हुआ मैं
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लब पे तकरीम-ए-तमन्ना-ए-सुबुक-पाई है
फिर जा रुकेगी बुझते ख़राबों के देस में
मिला तो मंज़िल-ए-जाँ में उतारने न दिया
पता चला कोई गिर्दाब से गुज़रते हुए
हम इतनी रौशनी में देख भी सकते नहीं उस को
बीनाई से बाहर कभी अंदर मुझे देखे
लगाता फिर रहा हूँ आशिक़ों पर कुफ़्र के फ़तवे
थकना भी लाज़मी था कुछ काम करते करते
चपातियाँ थीं बंधी पेट पर मगर शब-भर
सच है कि हम से बात भी करना नमाज़ है
वो मुझ से अपना पता पूछने को आ निकले