साल-हा-साल से ख़ामोश थे गहरे पानी
अब नज़र आए हैं आवाज़ के आसार मुझे
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फिर सर-ए-सुब्ह किसी दर्द के दर वा करने
पाए हुए इस वक़्त को खोना ही बहुत है
हर बार मदद के लिए औरों को पुकारा
सुना है वो मिरे बारे में सोचता है बहुत
वो सूरत देख ली हम ने तो फिर कुछ भी न देखा
लगता है इतना वक़्त मिरे डूबने में क्यूँ
पतंग उड़ाने से क्या मनअ कर सके ज़ाहिद
मक़्बूल-ए-अवाम हो गया मैं
मैं भी शरीक-ए-मर्ग हूँ मर मेरे सामने
छुपा हुआ जो नुमूदार से निकल आया
जो बंदा-ए-ख़ुदा था ख़ुदा होने वाला है
मैं ज़ियादा हूँ बहुत उस के लिए अब तक भी