मोहब्बत की जिस को ख़ुमारी लगे
बियाही भी उस को कुँवारी लगे
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गुड़िया की शादी
शरीर बच्चे
इश्क़ जब से हो गया इक लखनवी ख़ातून से
नन्हा पौदा
वही सुलूक ज़माने ने मेरे साथ किया
निकाह कर नहीं सकती वो मुझ फ़क़ीर के साथ
नाम से गाँधी के चिढ़ बैर आज़ादी से है
आता है याद मुझ को
शौहरों से बीबियाँ लड़ती हैं छापा-मार जंग
इस ज़माने की अजब तिश्ना-लबी है ऐ 'ज़फ़र'