वही सुलूक ज़माने ने मेरे साथ किया
किया था जैसा मुशर्रफ़ ने बेनज़ीर के साथ
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नन्हा पौदा
किताबें
शरीर बच्चे
नाम से गाँधी के चिढ़ बैर आज़ादी से है
मोहब्बत की जिस को ख़ुमारी लगे
गुड़िया की शादी
इश्क़ जब से हो गया इक लखनवी ख़ातून से
इस ज़माने की अजब तिश्ना-लबी है ऐ 'ज़फ़र'
किसी का हो नहीं सकता है कोई काम रोज़े में
निगाहों में जो मंज़र हो वही सब कुछ नहीं होता
निकाह कर नहीं सकती वो मुझ फ़क़ीर के साथ