शब के ग़म दिन के अज़ाबों से अलग रखता हूँ
शब के ग़म दिन के अज़ाबों से अलग रखता हूँ
सारी ताबीरों को ख़्वाबों से अलग रखता हूँ
जो पढ़ा है उसे जीना ही नहीं है मुमकिन
ज़िंदगी को मैं किताबों से अलग रखता हूँ
उस की तक़्दीस पे धब्बा नहीं लगने देता
दामन-ए-दिल को हिसाबों से अलग रखता हूँ
ये अमल रेत को पानी नहीं बनने देता
प्यास को अपनी सराबों से अलग रखता हूँ
उस के दर पर नहीं लिखता मैं हिसाब-ए-दुनिया
दिल की मस्जिद को ख़राबों से अलग रखता हूँ
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