जो पढ़ा है उसे जीना ही नहीं है मुमकिन
ज़िंदगी को मैं किताबों से अलग रखता हूँ
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झूट भी सच की तरह बोलना आता है उसे
जब अधूरे चाँद की परछाईं पानी पर पड़ी
दिलों के बीच न दीवार है न सरहद है
बे-हिसी पर हिस्सियत की दास्ताँ लिख दीजिए
मैं तुम्हें फूल कहूँ तुम मुझे ख़ुश्बू देना
रखा है बज़्म में उस ने चराग़ कर के मुझे
कभी कभी कोई चेहरा ये काम करता है
गुल हैं तो आप अपनी ही ख़ुश्बू में सोचिए
ऐ हम-सफ़र ये राह-बरी का गुमान छोड़
ये अमल रेत को पानी नहीं बनने देता