लुत्फ़ जब आए शिकवा-संजी का
हम कहें और सुना करे कोई
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तलाफ़ी वफ़ा की जफ़ा चाहता हूँ
वाँ तबीअत दम-ए-तक़रीर बिगड़ जाती है
कभी बोलना वो ख़फ़ा ख़फ़ा कभी बैठना वो जुदा जुदा
हम और चाह ग़ैर की अल्लाह से डरो
गेसू से अंबरी है सबा और सबा से हम
ब'अद मरने के भी मिट्टी मिरी बर्बाद रही
हम-नशीं उन के तरफ़-दार बने बैठे हैं
तुम ने पहलू में मिरे बैठ के आफ़त ढाई
ये सब कहने की बातें हैं हम उन को छोड़ बैठे हैं
बुझाऊँ क्या चराग़-ए-सुब्ह-गाही
आज आए थे घड़ी भर को 'ज़हीर'-ए-नाकाम