तुम ने पहलू में मिरे बैठ के आफ़त ढाई
और उठे भी तो इक हश्र उठा कर उट्ठे
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वो किस प्यार से कोसने दे रहे हैं
जाते हो तुम जो रूठ के जाते हैं जी से हम
हाए काफ़िर तिरे हमराह अदू आता है
वो नैरंग-ए-उल्फ़त को क्या जानता है
फ़ित्ना-गर शोख़ी-ए-हया कब तक
मिलने का नहीं रिज़्क़-ए-मुक़द्दर से सिवा और
किस मुँह से हाथ उठाएँ फ़लक की तरफ़ 'ज़हीर'
वो झूटा इश्क़ है जिस में फ़ुग़ाँ हो
ब'अद मरने के भी मिट्टी मिरी बर्बाद रही
नसीहत-गरो दिल लगाया तो होता
हरीफ़-ए-राज़ हैं ऐ बे-ख़बर दर-ओ-दीवार
यूँ तो होते हैं मोहब्बत में जुनूँ के आसार