वो जितने दूर खिंचते हैं तअल्लुक़ और बढ़ता है
नज़र से वो जो पिन्हाँ हैं तो दिल में हैं अयाँ क्या-क्या
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चाहत का जब मज़ा है कि वो भी हों बे-क़रार
बुझाऊँ क्या चराग़-ए-सुब्ह-गाही
है दिल में अगर उस से मोहब्बत का इरादा
सर पे एहसान रहा बे-सर-ओ-सामानी का
गेसू से अंबरी है सबा और सबा से हम
मुँह छुपाना पड़े न दुश्मन से
रहता तो है उस बज़्म में चर्चा मिरे दिल का
आख़िर मिले हैं हाथ किसी काम के लिए
आज आए थे घड़ी भर को 'ज़हीर'-ए-नाकाम
फटा पड़ता है जोबन और जोश-ए-नौ-जवानी है
शिरकत गुनाह में भी रहे कुछ सवाब की
क़हर है ज़हर है अग़्यार को लाना शब-ए-वस्ल