बड़े दिल-कश हैं दुनिया के ख़म ओ पेच
नज़र में ज़ुल्फ़ सी लहरा रही है
Faiz Ahmad Faiz
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आँधियाँ उट्ठीं फ़ज़ाएँ दूर तक कजला गईं
मरना अज़ाब था कभी जीना अज़ाब था
कोई दस्तक कोई आहट न शनासा आवाज़
शब-ए-महताब भी अपनी भरी-बरसात भी अपनी
आज की तन्हाई से निकलो कल की आबादी में आओ
हर रोज़ ही इमरोज़ को फ़र्दा न करोगे
तू अगर ग़ैर है नज़दीक-ए-रग-ए-जाँ क्यूँ है
परवाना जल के साहब-ए-किरदार बन गया
वो अक्सर बातों बातों में अग़्यार से पूछा करते हैं
सीरत न हो तो आरिज़-ओ-रुख़्सार सब ग़लत
अब इश्क़ से लौ लगाएँगे हम