फ़र्ज़ बरसों की इबादत का अदा हो जैसे
बुत को यूँ पूज रहे हैं कि ख़ुदा हो जैसे
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लौह-ए-मज़ार देख के जी दंग रह गया
तू अगर ग़ैर है नज़दीक-ए-रग-ए-जाँ क्यूँ है
इश्क़ जब तक न आस-पास रहा
उन्हीं की हसरत-ए-रफ़्ता की यादगार हूँ मैं
इस दौर-ए-आफ़ियत में ये क्या हो गया हमें
अहल-ए-दिल मिलते नहीं अहल-ए-नज़र मिलते नहीं
मुझ से बिछड़ कर पहरों रोया करता था
बढ़ गए हैं इस क़दर क़ल्ब ओ नज़र के फ़ासले
बड़े दिल-कश हैं दुनिया के ख़म ओ पेच
मुज़्महिल होने पे भी ख़ुद को जवाँ रखते हैं हम
हमारे इश्क़ से दर्द-ए-जहाँ इबारत है