हम ख़ुद ही बे-लिबास रहे इस ख़याल से
वहशत बढ़ी तो सू-ए-गरेबाँ भी आएगी
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सीरत न हो तो आरिज़-ओ-रुख़्सार सब ग़लत
परवाना जल के साहब-ए-किरदार बन गया
तन्हाइयों में आती रही जब भी उस की याद
हमारे इश्क़ से दर्द-ए-जहाँ इबारत है
मुझ से बिछड़ कर पहरों रोया करता था
हवा-ए-हिज्र चली दिल की रेगज़ारों में
फ़िराक़-ए-यार के लम्हे गुज़र ही जाएँगे
आह ये महकी हुई शामें ये लोगों के हुजूम
मरना अज़ाब था कभी जीना अज़ाब था
कितना दिलकश है तिरी याद का पाला हुआ अश्क
लौह-ए-मज़ार देख के जी दंग रह गया