जब ख़ामुशी ही बज़्म का दस्तूर हो गई
मैं आदमी से नक़्श-ब-दीवार बन गया
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लौह-ए-मज़ार देख के जी दंग रह गया
हमें ख़बर है कि हम हैं चराग़-ए-आख़िर-ए-शब
इस दौर-ए-आफ़ियत में ये क्या हो गया हमें
वो बज़्म से निकाल के कहते हैं ऐ 'ज़हीर'
हमारे इश्क़ से दर्द-ए-जहाँ इबारत है
फ़र्ज़ बरसों की इबादत का अदा हो जैसे
उन्हीं की हसरत-ए-रफ़्ता की यादगार हूँ मैं
वो इक झलक दिखा के जिधर से निकल गया
शब-ए-ग़म याद उन की आ रही है
इक शख़्स रात बंद-ए-क़बा खोलता रहा
हमराह लुत्फ़-ए-चश्म-ए-गुरेज़ाँ भी आएगी