सूने पड़े हैं दिल के दर-ओ-बाम ऐ 'ज़हीर'
लाहौर जब से छोड़ के जान-ए-ग़ज़ल गया
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मौसम बदला रुत गदराई अहल-ए-जुनूँ बेबाक हुए
शब-ए-ग़म याद उन की आ रही है
अब मिरी याद को दामन की हवाएँ देना
इस दौर-ए-आफ़ियत में ये क्या हो गया हमें
वो बज़्म से निकाल के कहते हैं ऐ 'ज़हीर'
आरिज़-ए-शम्अ' पे नींद आ गई परवानों को
मुज़्महिल होने पे भी ख़ुद को जवाँ रखते हैं हम
शब-ए-महताब भी अपनी भरी-बरसात भी अपनी
जब ख़ामुशी ही बज़्म का दस्तूर हो गई
तू मिरी ज़ात मिरी रूह मिरा हुस्न-ए-कलाम
इक शख़्स रात बंद-ए-क़बा खोलता रहा