तमाम उम्र तिरी हम-रही का शौक़ रहा
मगर ये रंज कि मैं मौजा-ए-सबा न हुआ
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शब-ए-महताब भी अपनी भरी-बरसात भी अपनी
हमराह लुत्फ़-ए-चश्म-ए-गुरेज़ाँ भी आएगी
फ़र्ज़ बरसों की इबादत का अदा हो जैसे
वो इक झलक दिखा के जिधर से निकल गया
सूने पड़े हैं दिल के दर-ओ-बाम ऐ 'ज़हीर'
किस को मिली तस्कीन-ए-साहिल किस ने सर मंजधार किया
हम ख़ुद ही बे-लिबास रहे इस ख़याल से
बड़े दिल-कश हैं दुनिया के ख़म ओ पेच
इश्क़ इक हिकायत है सरफ़रोश दुनिया की
बढ़ गए हैं इस क़दर क़ल्ब ओ नज़र के फ़ासले
इस दौर-ए-आफ़ियत में ये क्या हो गया हमें
जब ख़ामुशी ही बज़्म का दस्तूर हो गई