वो बज़्म से निकाल के कहते हैं ऐ 'ज़हीर'
जाओ मगर क़रीब-ए-रग-ए-जाँ रहा करो
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इक शख़्स रात बंद-ए-क़बा खोलता रहा
कोई दस्तक कोई आहट न शनासा आवाज़
तू मिरी ज़ात मिरी रूह मिरा हुस्न-ए-कलाम
तलब आसूदगी की अर्सा-ए-दुनिया में रखते हैं
हैं बज़्म-ए-गुल में बपा नौहा-ख़्वानियाँ क्या क्या
अहल-ए-दिल मिलते नहीं अहल-ए-नज़र मिलते नहीं
मैं हूँ वहशत में गुम मैं तेरी दुनिया में नहीं रहता
हम ने अपने इश्क़ की ख़ातिर ज़ंजीरें भी देखीं हैं
तन्हाइयों में आती रही जब भी उस की याद
शब-ए-महताब भी अपनी भरी-बरसात भी अपनी
हमारे इश्क़ से दर्द-ए-जहाँ इबारत है
लौह-ए-मज़ार देख के जी दंग रह गया