दर्द तो ज़ख़्म की पट्टी के हटाने से उठा
और कुछ और भी मरहम के लगाने से उठा
Wasi Shah
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मकीन ही अजीब हैं
असीर-ए-ज़ात-ए-रौशनी
हाँ वो मैं ही था कि जिस ने ख़्वाब ढोया सुब्ह तक
चंद मोहमल सी लकीरें ही सही इफ़्शा रहूँ
जो हौसला हो तो हल्की है दोपहर की धूप
पस्पाई
ज़र्रे ज़र्रे में बिखर जाना है तकमील-ए-हयात
बे-बर्ग-ओ-बार राह में सूखे दरख़्त थे
ख़्वाब-गाहों से अज़ान-ए-फ़ज्र टकराती रही
सूखे हुए पत्तों में आवाज़ की ख़ुशबू है
जैसे जैसे आगही बढ़ती गई वैसे 'ज़हीर'