आब-ए-ख़ुफ़्ता में
इक संग फेंका तो है
दाएरे
सतह-ए-साकित पे उभरे हैं
फैलेंगे
मिट जाएँगे
और वो संग-ए-जाँ
अपनी ये दास्ताँ
ज़ेर-ए-बार-ए-जुमूद-ए-गराँ
एक संग-ए-मलामत की मानिंद
दोहराएगा
Mohsin Naqvi
Wasi Shah
Habib Jalib
Anwar Masood
Jaun Eliya
Faiz Ahmad Faiz
Allama Iqbal
Rahat Indori
Ahmad Faraz
Parveen Shakir
Gulzar
Mir Taqi Mir
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कहाँ तक काविश-ए-इसबात-ए-पैहम
हिकायत-ए-गुरेज़ाँ
तख़्ईल का दर खोले हुए शाम खड़ी है
बू-ए-गुल रक़्स में है बाद-ए-ख़िज़ाँ रक़्स में है
दिन का कर्ब
वो हमें राह में मिल जाएँ ज़रूरी तो नहीं
वो हर्फ़-ओ-सौत-ओ-सदा
जज़्बा-ए-बे-कराना
संग-ए-जाँ
ख़्वाब तो ख़्वाब हैं पल भर में बिखर जाते हैं
मारा हमें इस दौर की आसाँ-तलबी ने
ज़िंदगी तू ने तो सच है कि वफ़ा हम से न की