मुड़ के देखा तो हमें छोड़ के जाती थी हयात
हम ने जाना था कोई बोझ गिरा है सर से
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ज़िंदगी तू ने तो सच है कि वफ़ा हम से न की
दिल-ए-फ़सुर्दा को अब ताक़त-ए-क़रार नहीं
कभी इश्क़ साज़-ए-हयात था कभी सोज़-ए-दिल ने जला दिया
वो हमें राह में मिल जाएँ ज़रूरी तो नहीं
सिवा है हद से अब एहसास की गिरानी भी
मौत
तख़्ईल का दर खोले हुए शाम खड़ी है
क़तरा-ए-आब को कब तक मिरी धरती तरसे
दिन का कर्ब
मारा हमें इस दौर की आसाँ-तलबी ने
ये ख़्वाबों के साए
वो हर्फ़-ओ-सौत-ओ-सदा