मैं ने तन्हाइयों के लम्हों में
तुम को अक्सर क़रीब पाया है
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दूसरों को फ़रेब दे दे कर
अहल-ए-दिल ने किए तामीर हक़ीक़त के सुतूँ
दर्द-ए-दिल ने ली न थी करवट अभी
अक़्ल ने तर्क-ए-तअल्लुक़ को ग़नीमत जाना
साग़र-ओ-जाम को छलकाओ कि कुछ रात कटे
वो तिरी ज़ुल्फ़ का साया हो कि आग़ोश तिरा
मुझ को सुकूँ की चैन की पज़मुर्दगी से क्या
मंज़िल जिसे समझते थे यारान-ए-क़ाफ़िला
कितने ही फूल चुन लिए मैं ने
आप पर जब से तबीअत आई
रुमूज़-ए-इश्क़ की गहराइयाँ सलामत हैं
ये रात यूँही बसर हो गई तो क्या होगा