इज़्न सूरज की किरन को नहीं जाने का जहाँ
मेरी तख़्ईल का शाहीन वहाँ भी पहुँचा
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राहतों के धोके में इज़्तिराब ढूँडे हैं
ख़ाक-ज़ादे ख़ाक में या ख़ाक पर हैं आज भी
कोई भूका जो फ़र्त-ए-ज़ोफ़ से कुछ लड़खड़ा जाए
कमाँ पे चढ़ के ब-शक्ल-ए-ख़दंग होना पड़ा
ग़रीबी नाम है जिस का अज़ाब-ए-जान होती है
ये कैसा काम ऐ दस्त-ए-मसीह कर डाला
जुदा उस जिस्म से हो कर कहीं तहलील हो जाता
ख़ून के जो रिश्ते थे बन गए अज़ाब-ए-जाँ
अमीरों के बुरे अतवार को जो ठीक समझे है
उम्र भर जिस ने किसी का हुक्म माना ही नहीं
हज़ारों ज़ुल्म हों मज़लूम पर तो चुप रहे दुनिया