इल्म में झींगुर से बढ़ कर कामराँ कोई नहीं
चाट जाता है किताबें इम्तिहाँ कोई नहीं
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वहशत में हर इक नक़्शा उल्टा नज़र आता है
क़ैस कहता था यही फ़िक्र है दिन-रात मुझे
बुतों को भूल जाते हैं ख़ुदा को याद करते हैं
वो हो कैसा ही दुबला तार बिस्तर हो नहीं सकता
मजनूँ का जो ऐ लैला जूता न फटा होता
करेंगे सब ये दा'वा नक़्द-ए-दिल जो हार बैठे हैं
तेरे रहने को मुनासिब था कि छप्पर होता
महशरिस्तान-ए-जुनूँ में दिल-ए-नाकाम आया
ग़ुंचा-दहन वही है कि गूँगा कहें जिसे
तमन्ना है किसी की तेग़ हो और अपनी गर्दन हो
इल्म में झींगर से बढ़ कर कामराँ कोई नहीं