ज़ेहरा निगाह कविता, ग़ज़ल तथा कविताओं का ज़ेहरा निगाह

नाम | ज़ेहरा निगाह |
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अंग्रेज़ी नाम | Zehra Nigaah |
जन्म की तारीख | 1937 |
जन्म स्थान | Pakistan |
मैं बच गई माँ
ज़मीं पर गिर रहे थे चाँद तारे जल्दी जल्दी
ये उदासी ये फैलते साए
वो साथ न देता तो वो दाद न देता तो
वो न जाने क्या समझा ज़िक्र मौसमों का था
वहशत में भी मिन्नत-कश-ए-सहरा नहीं होते
उठो कि जश्न-ए-ख़िज़ाँ हम मनाएँ जी भर के
तुम से हासिल हुआ इक गहरे समुंदर का सुकूत
तारों को गर्दिशें मिलीं ज़र्रों को ताबिशें
सुल्ह जिस से रही मेरी ता-ज़िंदगी
शाम ढले आहट की किरनें फूटी थीं
शब-भर का तिरा जागना अच्छा नहीं 'ज़ेहरा'
साअतें जो तिरी क़ुर्बत में गिराँ गुज़री थीं
रुक जा हुजूम-ए-गुल कि अभी हौसला नहीं
रौशनियाँ अतराफ़ में 'ज़ेहरा' रौशन थीं
रात अजब आसेब-ज़दा सा मौसम था
नहीं नहीं हमें अब तेरी जुस्तुजू भी नहीं
मैं तो अपने आप को उस दिन बहुत अच्छी लगी
मय-ए-हयात में शामिल है तल्ख़ी-ए-दौराँ
लो डूबतों ने देख लिया नाख़ुदा को आज
कोई हंगामा सर-ए-बज़्म उठाया जाए
कहाँ के इश्क़-ओ-मोहब्बत किधर के हिज्र ओ विसाल
जो सुन सको तो ये सब दास्ताँ तुम्हारी है
जो दिल ने कही लब पे कहाँ आई है देखो
जीना है तो जी लेंगे बहर-तौर दिवाने
जिन बातों को सुनना तक बार-ए-ख़ातिर था
इस उम्मीद पे रोज़ चराग़ जलाते हैं
इस शहर को रास आई हम जैसों की गुम-नामी
हम से बढ़ी मसाफ़त-ए-दश्त-ए-वफ़ा कि हम
हम जो पहुँचे तो रहगुज़र ही न थी