ज़ेहरा निगाह कविता, ग़ज़ल तथा कविताओं का ज़ेहरा निगाह (page 2)
नाम | ज़ेहरा निगाह |
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अंग्रेज़ी नाम | Zehra Nigaah |
जन्म की तारीख | 1937 |
जन्म स्थान | Pakistan |
ग़म अपने ही अश्कों का ख़रीदा हुआ है
गर्दिश-ए-मीना-ओ-जाम देखिए कब तक रहे
एक तेरा ग़म जिस को राह-ए-मो'तबर जानें
एक के घर की ख़िदमत की और एक के दिल से मोहब्बत की
दीवानों को अब वुसअत-ए-सहरा नहीं दरकार
दिल बुझने लगा आतिश-ए-रुख़्सार के होते
देर तक रौशनी रही कल रात
देखते देखते इक घर के रहने वाले
देखो वो भी हैं जो सब कह सकते थे
देखो तो लगता है जैसे देखा था
छोटी सी बात पे ख़ुश होना मुझे आता था
भूलना ख़ुद को तो आसाँ है भुला बैठा हूँ
बस्ती में कुछ लोग निराले अब भी हैं
बरसों हुए तुम कहीं नहीं हो
बहुत दिन ब'अद 'ज़ेहरा' तू ने कुछ ग़ज़लें तो लिख्खीं
औरत के ख़ुदा दो हैं हक़ीक़ी ओ मजाज़ी
अपना हर अंदाज़ आँखों को तर-ओ-ताज़ा लगा
अब इस घर की आबादी मेहमानों पर है
अब भी कुछ लोग सुनाते हैं सुनाए हुए शेर
ज़ेहरा ने बहुत दिन से कुछ भी नहीं लिक्खा है
ये ख़ाल-ओ-ख़द मिरे अपने
वो किताब
विर्सा
तन-ए-नहीफ़ से अम्बोह-ए-जब्र हार गया
तामील-ए-वफ़ा का अहद-नामा
शाम का पहला तारा (2)
शाम का पहला तारा
शहर के एक कुशादा घर में
समझौता
रास्ते