ज़ेहरा निगाह कविता, ग़ज़ल तथा कविताओं का ज़ेहरा निगाह (page 4)
नाम | ज़ेहरा निगाह |
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अंग्रेज़ी नाम | Zehra Nigaah |
जन्म की तारीख | 1937 |
जन्म स्थान | Pakistan |
तिरा ख़याल फ़रोज़ाँ है देखिए क्या हो
सफ़र ख़ुद-रफ़्तगी का भी अजब अंदाज़ था
रुक जा हुजूम-ए-गुल कि अभी हौसला नहीं
रिश्ते से मुहाफ़िज़ का ख़तरा जो निकल जाता
रौनक़ें अब भी किवाड़ों में छुपी लगती हैं
रात गहरी थी फिर भी सवेरा सा था
रात अजब आसेब-ज़दा सा मौसम था
क़ुर्बतों से कब तलक अपने को बहलाएँगे हम
नक़्श की तरह उभरना भी तुम्ही से सीखा
लब पर ख़मोशियों को सजाए नज़र चुराए
क्यूँ ऐ ग़म-ए-फ़िराक़ ये क्या बात हो गई
कोई हंगामा सर-ए-बज़्म उठाया जाए
ख़ुश जो आए थे पशेमान गए
जुनून-ए-अव्वलीं शाइस्तगी थी
जो दिल ने कही लब पे कहाँ आई है देखो
जाँ देना बस एक ज़ियाँ का सौदा था
इस उम्मीद पे रोज़ चराग़ जलाते हैं
इस रहगुज़र में अपना क़दम भी जुदा मिला
हम लोग जो ख़ाक छानते हैं
हर्फ़ हर्फ़ गूँधे थे तर्ज़ मुश्कबू की थी
हर ख़ार इनायत था हर इक संग सिला था
हर आन सितम ढाए है क्या जानिए क्या हो
हमें तो आदत-ए-ज़ख़्म-ए-सफ़र है क्या कहिए
गर्दिश-ए-मीना-ओ-जाम देखिए कब तक रहे
एक तेरा ग़म जिस को राह-ए-मो'तबर जानें
एक के घर की ख़िदमत की और एक के दिल से मोहब्बत की
दिल बुझने लगा आतिश-ए-रुख़्सार के होते
देर तक रौशनी रही कल रात
छलक रही है मय-ए-नाब तिश्नगी के लिए
भूली-बिसरी यादों को लिपटाए हुए हूँ