अब इस घर की आबादी मेहमानों पर है
कोई आ जाए तो वक़्त गुज़र जाता है
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जीना है तो जी लेंगे बहर-तौर दिवाने
लो डूबतों ने देख लिया नाख़ुदा को आज
वहशत में भी मिन्नत-कश-ए-सहरा नहीं होते
उठो कि जश्न-ए-ख़िज़ाँ हम मनाएँ जी भर के
ग़म अपने ही अश्कों का ख़रीदा हुआ है
तारों को गर्दिशें मिलीं ज़र्रों को ताबिशें
बस्ती में कुछ लोग निराले अब भी हैं
ख़ुश जो आए थे पशेमान गए
बहुत दिन ब'अद 'ज़ेहरा' तू ने कुछ ग़ज़लें तो लिख्खीं
हम से बढ़ी मसाफ़त-ए-दश्त-ए-वफ़ा कि हम
आज की बात
रात गहरी थी फिर भी सवेरा सा था