अपना हर अंदाज़ आँखों को तर-ओ-ताज़ा लगा
कितने दिन के ब'अद मुझ को आईना अच्छा लगा
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बस्ती में कुछ लोग निराले अब भी हैं
रुक जा हुजूम-ए-गुल कि अभी हौसला नहीं
जुनून-ए-अव्वलीं शाइस्तगी थी
वहशत में भी मिन्नत-कश-ए-सहरा नहीं होते
तामील-ए-वफ़ा का अहद-नामा
कहानी गुल-ज़मीना की
वो न जाने क्या समझा ज़िक्र मौसमों का था
एक सच्ची अम्माँ की कहानी
हम लोग जो ख़ाक छानते हैं
बैठे बैठे कैसा दिल घबरा जाता है
अब तक शरीक-ए-महफ़िल-ए-अग़्यार कौन है
हर ख़ार इनायत था हर इक संग सिला था