बरसों हुए तुम कहीं नहीं हो
आज ऐसा लगा यहीं कहीं हो
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ये हुक्म है कि अँधेरे को रौशनी समझो
रौशनियाँ अतराफ़ में 'ज़ेहरा' रौशन थीं
वहशत में भी मिन्नत-कश-ए-सहरा नहीं होते
सुल्ह जिस से रही मेरी ता-ज़िंदगी
रास्ते
हर आन सितम ढाए है क्या जानिए क्या हो
जो दिल ने कही लब पे कहाँ आई है देखो
देखो तो लगता है जैसे देखा था
गर्दिश-ए-मीना-ओ-जाम देखिए कब तक रहे
गुल-चाँदनी
अपना हर अंदाज़ आँखों को तर-ओ-ताज़ा लगा