देखो वो भी हैं जो सब कह सकते थे
देखो उन के मुँह पर ताले अब भी हैं
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इस शहर को रास आई हम जैसों की गुम-नामी
एक के घर की ख़िदमत की और एक के दिल से मोहब्बत की
इस उम्मीद पे रोज़ चराग़ जलाते हैं
कहानी गुल-ज़मीना की
रात अजब आसेब-ज़दा सा मौसम था
ये ख़ाल-ओ-ख़द मिरे अपने
समझौता
मैं तो अपने आप को उस दिन बहुत अच्छी लगी
अब तो कुछ ऐसा लगता है
जाँ देना बस एक ज़ियाँ का सौदा था
हर आन सितम ढाए है क्या जानिए क्या हो
लो डूबतों ने देख लिया नाख़ुदा को आज