एक के घर की ख़िदमत की और एक के दिल से मोहब्बत की
दोनों फ़र्ज़ निभा कर उस ने सारी उम्र इबादत की
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हम से बढ़ी मसाफ़त-ए-दश्त-ए-वफ़ा कि हम
शब-भर का तिरा जागना अच्छा नहीं 'ज़ेहरा'
दीवानों को अब वुसअत-ए-सहरा नहीं दरकार
ये उदासी ये फैलते साए
ये हुक्म है कि अँधेरे को रौशनी समझो
वो जो इक शक्ल मिरे चार तरफ़ बिखरी थी
जीना है तो जी लेंगे बहर-तौर दिवाने
जो दिल ने कही लब पे कहाँ आई है देखो
कोई हंगामा सर-ए-बज़्म उठाया जाए
रिश्ते से मुहाफ़िज़ का ख़तरा जो निकल जाता
नहीं नहीं हमें अब तेरी जुस्तुजू भी नहीं
वो न जाने क्या समझा ज़िक्र मौसमों का था