जो सुन सको तो ये सब दास्ताँ तुम्हारी है
हज़ार बार जताया मगर नहीं माने
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रात अजब आसेब-ज़दा सा मौसम था
वो न जाने क्या समझा ज़िक्र मौसमों का था
हर आन सितम ढाए है क्या जानिए क्या हो
बहुत दिन ब'अद 'ज़ेहरा' तू ने कुछ ग़ज़लें तो लिख्खीं
तुम से हासिल हुआ इक गहरे समुंदर का सुकूत
ग़म अपने ही अश्कों का ख़रीदा हुआ है
रात गहरी थी फिर भी सवेरा सा था
रौशनियाँ अतराफ़ में 'ज़ेहरा' रौशन थीं
अब इस घर की आबादी मेहमानों पर है
सुल्ह जिस से रही मेरी ता-ज़िंदगी
देर तक रौशनी रही कल रात