लो डूबतों ने देख लिया नाख़ुदा को आज
तक़रीब कुछ तो बहर-ए-मुलाक़ात हो गई
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तामील-ए-वफ़ा का अहद-नामा
ये उदासी ये फैलते साए
रात अजब आसेब-ज़दा सा मौसम था
देखते देखते इक घर के रहने वाले
यूँ कहने को पैराया-ए-इज़हार बहुत है
नया घर
भूलना ख़ुद को तो आसाँ है भुला बैठा हूँ
एक तेरा ग़म जिस को राह-ए-मो'तबर जानें
वो किताब
''अलिफ़'' और ''बे'' के नाम
ये क्या सितम है कोई रंग-ओ-बू न पहचाने
वहशत में भी मिन्नत-कश-ए-सहरा नहीं होते