साअतें जो तिरी क़ुर्बत में गिराँ गुज़री थीं
दूर से देखूँ तो अब वो भी भली लगती हैं
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डरो उस वक़्त से
अब भी कुछ लोग सुनाते हैं सुनाए हुए शेर
वो जो इक शक्ल मिरे चार तरफ़ बिखरी थी
हम जो पहुँचे तो रहगुज़र ही न थी
ये उदासी ये फैलते साए
मैं तो अपने आप को उस दिन बहुत अच्छी लगी
मुस्लिम मुस्लिम फ़सादात
रिश्ते से मुहाफ़िज़ का ख़तरा जो निकल जाता
भूलना ख़ुद को तो आसाँ है भुला बैठा हूँ
इस उम्मीद पे रोज़ चराग़ जलाते हैं
बिल्ली
शहर के एक कुशादा घर में