शाम ढले आहट की किरनें फूटी थीं
सूरज डूब के मेरे घर में निकला था
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इंसाफ़
देर तक रौशनी रही कल रात
जो दिल ने कही लब पे कहाँ आई है देखो
जो सुन सको तो ये सब दास्ताँ तुम्हारी है
आज की बात
नहीं नहीं हमें अब तेरी जुस्तुजू भी नहीं
कहाँ के इश्क़-ओ-मोहब्बत किधर के हिज्र ओ विसाल
वहशत में भी मिन्नत-कश-ए-सहरा नहीं होते
आँगन
ज़ेहरा ने बहुत दिन से कुछ भी नहीं लिक्खा है
हम जो पहुँचे तो रहगुज़र ही न थी
देखो वो भी हैं जो सब कह सकते थे