सुल्ह जिस से रही मेरी ता-ज़िंदगी
उस का सारे ज़माने से झगड़ा सा था
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आँगन
गुल-चाँदनी
ग़म अपने ही अश्कों का ख़रीदा हुआ है
एक तेरा ग़म जिस को राह-ए-मो'तबर जानें
एक तिलिस्मी खेल
दिल बुझने लगा आतिश-ए-रुख़्सार के होते
बुलावा
नहीं नहीं हमें अब तेरी जुस्तुजू भी नहीं
इस रहगुज़र में अपना क़दम भी जुदा मिला
हर ख़ार इनायत था हर इक संग सिला था
ख़ुश जो आए थे पशेमान गए
वो न जाने क्या समझा ज़िक्र मौसमों का था