उठो कि जश्न-ए-ख़िज़ाँ हम मनाएँ जी भर के
बहार आए गुलिस्ताँ में कब ख़ुदा जाने
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जाँ देना बस एक ज़ियाँ का सौदा था
नक़्श की तरह उभरना भी तुम्ही से सीखा
देखो वो भी हैं जो सब कह सकते थे
ज़ेहरा ने बहुत दिन से कुछ भी नहीं लिक्खा है
भूलना ख़ुद को तो आसाँ है भुला बैठा हूँ
एक तेरा ग़म जिस को राह-ए-मो'तबर जानें
वो साथ न देता तो वो दाद न देता तो
रौनक़ें अब भी किवाड़ों में छुपी लगती हैं
एक सच्ची अम्माँ की कहानी
देखते देखते इक घर के रहने वाले
इस रहगुज़र में अपना क़दम भी जुदा मिला
दीवानों को अब वुसअत-ए-सहरा नहीं दरकार