वहशत में भी मिन्नत-कश-ए-सहरा नहीं होते
कुछ लोग बिखर कर भी तमाशा नहीं होते
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Gulzar
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Ahmad Faraz
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Habib Jalib
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अब इस घर की आबादी मेहमानों पर है
ये क्या सितम है कोई रंग-ओ-बू न पहचाने
तामील-ए-वफ़ा का अहद-नामा
हम लोग जो ख़ाक छानते हैं
अकेले होने का ख़ौफ़
शाम ढले आहट की किरनें फूटी थीं
हर्फ़ हर्फ़ गूँधे थे तर्ज़ मुश्कबू की थी
हमें तो आदत-ए-ज़ख़्म-ए-सफ़र है क्या कहिए
जाँ देना बस एक ज़ियाँ का सौदा था
रात अजब आसेब-ज़दा सा मौसम था
ये हुक्म है कि अँधेरे को रौशनी समझो
एक तिलिस्मी खेल