वो न जाने क्या समझा ज़िक्र मौसमों का था
मैं ने जाने क्या सोचा बात रंग-ओ-बू की थी
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सफ़र ख़ुद-रफ़्तगी का भी अजब अंदाज़ था
रुक जा हुजूम-ए-गुल कि अभी हौसला नहीं
जीना है तो जी लेंगे बहर-तौर दिवाने
क़ुर्बतों से कब तलक अपने को बहलाएँगे हम
तुम से हासिल हुआ इक गहरे समुंदर का सुकूत
इस शहर को रास आई हम जैसों की गुम-नामी
जुनून-ए-अव्वलीं शाइस्तगी थी
एक लड़की
मुस्लिम मुस्लिम फ़सादात
जो दिल ने कही लब पे कहाँ आई है देखो
बिल्ली
एक पुरानी कहानी